होली पर मीठे आभुषणो की मिठी है परम्परा…..
मालवा में शक्कर के मीठे आभूषण पहनकर मनाई जाती है होली, ताकि पूरे साल रिश्तो में बनी रहे मिठास
100 से भी अधिक सालों से चली आ रही है परम्परा, गांवो में आज भी है मिठास
राकेश बिकुन्दीया, सुसनेर। मालवा क्षेत्र में होली पर एक अनुठी परम्परा प्रचलित है। 100 सालों से भी अधिक पुरानी इस परम्परा में शक्कर से बनी रंगबिरंगी मालाएं और आभुषणो को पहनकर बच्चे होलिका दहन करने जाते है, होलिका दहन के समय इनकी पुजा की जाती है, और बाद में इन गहनो और मालाओ को प्रसादी के रूप में बच्चों और बडो में बांट दिया जाता है। होली पर बांटे जाने वाले इन मीठे आभुषणो को सभी बहुत पसंद करते है। लोगो के अनुसार ये आभुषण बांटे ही इसलिए जाते है, ताकि पूरे सालभर रिश्तो में मिठास बनी रहे। कडवाहट की कोई गुंजाईश ही न बचे। परंपरा अनुसार ग्रामीण इलाको में होलीका दहन के लिए अपने घरो से निकले बच्चे लकडी से बनी तलवारो को कंधे पर रखकर जाते है। होलिका दहन में इन तलवारो की नोंक से अंगारो को खंगालकर इन्है आधा जलाया जाता हैा फिर आधी जली इन तलवारो को वापस घरो में लाया जाता हैा ग्रामीण मानते है कि ऐसा करने से घर में सुख समृद्धि आती है।

हिन्दू मुस्लिम सभी करते है इन मीठे गहनो का कारोबार
जात पात से परे रंगो के इस त्योहार पर हिन्दु ही नहीं बल्कि मुस्लिम भी इन मीठे गहनो का व्यापार करते है, मालवा की परंपरा में शामिल शक्कर से बनी इन मिठी मालाओ और गहनो का हजारो क्विंटल में व्यापार होता है। लगभग 70 से 100 रूपए किलो तक इनको बेचा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रो की महिलाएं और बच्चे जमकर इनकी खरीददारी करते है। वर्षो से इस पुश्तैनी व्यापार को कर रहे हुजेम अली बोहरा के अनुसार होली पर लगभग आठ से दस दिनो तक इन आभुषणो का अच्छा कारोबार हो जाता हैा बाजार में जगह जगह फुटपाथो पर इनकी कई दुकाने लगने के बाद भी आज भी इन आभुषणो का व्यापार कम नहीं हुआ है।

30 वर्षो से कर रहे है कारोबार
सुसनेर निवासी शेलेन्द्र माली और राजेन्द्र जैन लगभग 30 वर्षो से भी अधिक समय से इन रंगबिरंगी मालाओ और आभुषणो को बनाते चले आ रहे हैा उनके जैसे कई दुकानदार होली के पंद्रह दिन पहले से ही इनको बनाना शुरू कर देते है। शक्कर की चासनी में खाने वाले रंगो को डालकर इन्हे बनाया जाता है। खास बात यह है की महंगाई और आधुनिकता चकाचौंद के बावजुद इन मीठे आभुषणो की मांग आज भी बनी हुई है।

